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कंकाल-अध्याय -६८

दोनों ने तुरन्त गठरी दबाकर बाहर की राह ली। किशोरी ने एक बार भी उन्हें ठहरने के लिए न कहा। उस समय श्रीचन्द्र और मोहन गाड़ी पर चढ़कर हवा खाने गये थे।

किशोरी का हृदय इस नवान्तुक कल्पित सन्तान से विद्रोह तो कर ही रहा था, वह अपना सच्चा धन गँवाकर इस दत्तक पुत्र से मन भुलवाने में असमर्थ थी। नियति की इस आकस्मिक विडम्बना ने उसे अधीर बना दिया। जिस घण्टी के कारण विजय अपने सुखमय संसार को खो बैठा और किशोरी ने अपने पुत्र विजय को; उसी घण्टी का भाई आज उसके सर्वस्व का मालिक है, उत्तराधिकारी है। दुर्दैव का कैसा परिहास है! वह छटपटाने लगी; परन्तु अब कर ही क्या सकती थी। धर्म के विधान से दत्तक पुत्र उसका अधिकारी था और विजय नियम के विधान से निर्वासित-मृतक-तुल्य!

मंगलदेव की पाठशाला में अब दो विभाग हैं-एक लड़कों का, दूसरा लड़कियों का। गाला लड़कियों की शिक्षा का प्रबन्ध करती। अब वह एक प्रभावशाली गम्भीर युवती दिखलाई पड़ती, जिसके चारों ओर पवित्रता और ब्रह्मचर्य का मण्डल घिरा रहता! बहुत-से लोग जो पाठशाला में आते, वे इस जोड़ी को आश्चर्य से देखते। पाठशाला के बड़े छप्पर के पास ही गाला की झोंपड़ी थी, जिसमें एक चटाई, तीन-चार कपड़े, एक पानी का बरतन और कुछ पुस्तकें थीं। गाला एक पुस्तक मनोयोग से पढ़ रही थी। कुछ पन्ने उलटते हुए उसने सन्तुष्ट होकर पुस्तक धर दी। वह सामने की सड़क की ओर देखने लगी। फिर भी कुछ समझ में न आया। उसने बड़बड़ाते हुए कहा, 'पाठ्यक्रम इतना असम्बद्ध है कि यह मनोविकास में सहायक होने के बदले, स्वयं भार हो जायेगा।' वह फिर पुस्तक पढ़ने लगी-'रानी ने उन पर कृपा दिखाते हुए छोड़ दिया और राजा ने भी रानी की उदारता पर हँसकर प्रसन्नता प्रकट की...' राजा और रानी, इसमें रानी स्त्री और पुरुष बनाने का, संसार का सहनशील साझीदार होने का सन्देश कहीं नहीं। केवल महत्ता का प्रदर्शन, मन पर अनुचित प्रभाव का बोझ! उसने झुँझलाकर पुस्तक पटककर एक निःश्वास लिया, उसे बदन का स्मरण हुआ, 'बाबा' कहकर एक बार चिहुँक उठी! वह अपनी ही भर्त्सना प्रारम्भ कर चुकी थी। सहसा मंगलदेव मुस्कुराता हुआ सामने दिखाई पड़ा। मिट्टी के दीपक की लौ भक-भक करती हुई जलने लगी।

'तुमने कई दिन लगा दिये, मैं तो अब सोने जा रही थी।'

'क्या करूँ, आश्रम की एक स्त्री पर हत्या का भयानक अभियोग था। गुरुदेव ने उसकी सहायता के लिए बुलाया था।'

'तुम्हारा आश्रम हत्यारों की भी सहायता करता है?'

'नहीं गाला! वह हत्या उसने नहीं की थी, वस्तुतः एक दूसरे पुरुष ने की; पर वह स्त्री उसे बचाना चाहती है।'

'क्यों?'

'यही तो मैं समझ न सका।'

'तुम न समझ सके! स्त्री एक पुरुष को फाँसी से बचाना चाहती है और इसका कारण तुम्हारी समझ में न आया-इतना स्पष्ट कारण!'

'तुम क्या समझती हो?'

'स्त्री जिससे प्रेम करती है, उसी पर सरबस वार देने को प्रस्तुत हो जाती है, यदि वह भी उसका प्रेमी हो तो स्त्री वय के हिसाब से सदैव शिशु, कर्म में वयस्क और अपनी सहायता में निरीह है। विधाता का ऐसा ही विधान है।'

मंगल ने देखा कि अपने कथन में गाला एक सत्य का अनुभव कर रही है। उसने कहा, 'तुम स्त्री-मनोवृत्ति को अच्छी तरह समझ सकती हो; परन्तु सम्भव है यहाँ भूल कर रही हो। सब स्त्रियाँ एक ही धातु की नहीं। देखो, मैं जहाँ तक उसके सम्बन्ध में जानता हूँ, तुम्हें सुनाता हूँ, वह एक निश्छल प्रेम पर विश्वास रखती थी और प्राकृतिक नियम से आवश्यक था कि एक युवती किसी भी युवक पर विश्वास करे; परन्तु वह अभागा युवक उस विश्वास का पात्र नहीं था। उसकी अत्यन्त आवश्यक और कठोर घड़ियों में युवक विचलित हो उठा। कहना न होगा कि उसे युवक ने उसके विश्वास को बुरी तरह ठुकराया। एकाकिनी उस आपत्ति की कटुता झेलने के लिए छोड़ दी गयी। बेचारी को एक सहारा भी मिला; परन्तु यह दूसरा युवक भी उसके साथ वही करने के लिए प्रस्तुत था, जो पहले युवक ने किया। वह फिर अपना आश्रय छोड़ने के लिये बाध्य हुई। उसने संघ की छाया में दिन बिताना निश्चित किया। एक दिन उसने देखा कि यही दूसरा युवक एक हत्या करके फाँसी पाने की आशा में हठ कर रहा है। उसने हटा लिया, आप शव के पास बैठी रही। पकड़ी गयी, तो हत्या का भार अपने सिर ले लिया। यद्यपि उसने स्पष्ट स्वीकार नहीं किया; परन्तु शासन को तो एक हत्या के बदले दूसरी हत्या करनी ही है। न्याय की यही समीप मिली, उसी पर अभियोग चल रहा है। मैं तो समझता हूँ कि वह हताश होकर जीवन दे रही है। उसका कारण प्रेम नहीं है, जैसा तुम समझ रही हो।'

गाला ने एक दीर्घ श्वास लिया। उसने कहा, 'नारी जाति का निर्माण विधाता की एक झुँझलाहट है। मंगल! संसार-भर के पुरुष उससे कुछ लेना चाहते हैं, एक माता ही सहानुभूति रखती है; इसका कारण है उसका स्त्री होना। हाँ, तो उसने न्यायालय में अपना क्या वक्तव्य दिया?'

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